बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 भूगोल बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 भूगोलसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 भूगोल - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- प्राचीन भारत में नियोजन पद्धतियों पर लेख लिखिए।
उत्तर -
नगर योजना वास्तुशास्त्र का अभिन्न अंग है। पुरातात्विक तथा साहित्यिक स्रोतों से भारत में नगरों को योजनाबद्ध तरीके से स्थापित किये जाने की सूचना मिलती है। प्राक् सैन्धव काल से ही बसति योजना के कतिपय लक्षण दिखायी देने लगते हैं। कालीबंगा तथा कोटदीजी की प्राक् सैन्धव बस्तियों में किलेबन्दी तथा भवनों के योजनाबद्ध निर्माण के कुछ साक्ष्य मिले हैं। सैन्धव सभ्यता की तो यह प्रमुख विशेषता ही रही है। सिन्धु सभ्यता के नगर और कस्बे एक निश्चित योजना के अनुसार बसाये जाते थे। इनमें काफी हद तक समरूपता होते हुए भी कुछ स्थानीय विशेषताएँ भी मिलती हैं। प्रमुख पुरास्थलों से पूरब एवं पश्चिम दिशा में दो टीले मिले हैं। इनमें पूर्वी टीले पर नगर क्षेत्र, Lower City जबकि पश्चिमी टीले पर दुर्ग Citadel के साक्ष्य प्राप्त हुए। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा कालिबंगा में दुर्ग व नगर क्षेत्र प्राचीर से युक्त थे। उपर्युक्त से भिन्न लोथल एवं सुरकोटड़ा में अलग-अलग दो टीले नहीं मिले। इन दोनों नगरों के सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे थे। इनसे भिन्न धौलीवारा की अपनी अद्भुत नगर योजना थी। यह नगर तीन मुख्य भागों में विभक्त था, जिसमें दुर्ग भाग, मध्यम नगर एवं निचला नगर सम्मिलित था। ये तीनों भाग एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे।
नगरों में सड़कों की समुचित योजना थी। प्रायः सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर क्षेत्र को कई खण्डों में विभाजित करती थीं। कुछ सड़कें बहुत चौड़ी, कुछ साधारण एवं कुछ तंग गलियों जैसी थीं। मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़क लगभग 10 मीटर से अधिक चौड़ी थी। यहाँ गलियाँ 10 मीटर से 20 मीटर तक चौड़ी पायी गई। सड़कों एवं गलियों में जल एवं मल निकासी हेतु पक्की ईंटों की बनी ढकी नालियाँ सैन्धव नगर योजना की बड़ी विशेषता मानी जाती है।
नगर एवं दुर्ग क्षेत्र में विभिन्न आकार-प्रकार के भवन मिले हैं। भवन निर्माण में पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ है। यद्यपि कालीबंगा, लोथल एवं रंगपुर में कच्ची ईंटों तथा धौलावीरा एवं सुरकोटड़ा में भवन निर्माण में प्रस्तरों का भी प्रयोग दिखा। ईंटें विभिन्न आकार-प्रकार की प्रयुक्त हुयी हैं परन्तु सामान्य आकार 27 सेमी x 13 सेमी x 6 सेमी की हैं। इमारतों के कोनों की चिनाई हेतु अंग्रेजी के एल आकार की ईंटों का तथा कुँओं एवं मेहराबों के निर्माण में फन्नीदार ईंटों का प्रयोग होता था।
सामान्य आवासीय घरों के साथ इस सभ्यता के नगरों से कई सार्वजनिक उपयोग के भवनों एवं वास्तु के अवशेष मिले हैं जिनमें नगरीय बस्ती हेतु जल संसाधन के महत्व से भी सैन्धववासी पूर्णतः परिचित थे। प्रायः सभी महत्वपूर्ण नगर नदियों के किनारे बसाए गए। मोहनजोदड़ो जैसे पुरास्थल से अनेक कुएँ मिले हैं। धौलीवारा से जल संरक्षण हेतु तालाबों के अवशेष महत्वपूर्ण हैं जिनमें वर्षा के जल को एकत्र किया जाता था।
सैन्धव नगर योजना सम्बन्धी इन विवरणों के आलोक में तयुगीन नगर निवेश की जिन विशेषताओं का परिज्ञान होता है, उनमें प्रमुख हैं- नगर। उपर्युक्त के साथ-साथ जल संसाधन की प्राकृतिक एवं कृत्रिम व्यवस्था पर भी विशेष ध्यान दिया गया। उल्लेखनीय है कि ये ही कतिपय बिन्दु आगे भी नगर योजना के प्रमुख आधार स्तम्भ बने रहे।
वैदिक काल में भी नगरों की सुरक्षा हेतु उन्हें प्राचीरों से घेरने का प्रचलन रहा। ऋग्वेद में असुरों के सुदृढ़ पुर जिसे अधिकांश विद्वान दुर्ग जैसे नगर निर्माण के द्योतक मानते हैं, अनेक बार उल्लेख हैं। एक स्थल पर पुरों की अश्वन्मयी कहा गया। एक स्थल पर अग्नि से प्रार्थना की गई कि वे मनुष्यों की रक्षा के लिए ऐसी पुरी का निर्माण करे जो अजेय एवं सौ स्तम्भों वाला अन्यत्र उनके 100 द्वार शतदुरद्ध का उल्लेख भी मिलता है। ऋग्वेग में सहस्रथूण प्रासादों का वर्णन भी हुआ है, जो राजभवन के सभा मण्डप जैसी वास्तु संरचना जान पड़ती है। अष्टाध्यायी में उल्लिखित कतिपय सूत्र भी इस ओर संकेत देते हैं कि उस समय नगरों के सन्निवेश दुर्ग के रूप में होता था। पाणिनि के सूत्र 5.1.16 में नगर निर्माण के लिए सामग्री एकत्र करने तथा सूत्र द्वारा भूमि मापन का संकेत है। एक नगर सूत्र में प्रयुक्त परिख या शब्द नगर निवेश करते समय दुर्ग के चारों ओर परिखा निर्माण की प्रक्रिया का संकेत करते हैं। यद्यपि यहाँ प्राकार शब्द नहीं मिलता। देवपथ शब्द यहाँ अवश्य मिलता है, जो कि अर्थशास्त्र के अनुसार प्राकार का ही एक हिस्सा है।
पालि साहित्य में पुर या नगर के प्रमुख हिस्सों में परिखा खाई, प्राकार परकोटा, द्वार, द्वार- अट्टालक, प्रासाद, गृह, देवस्थान, पुण्यशाला, विश्रामगृह आपण, उद्यान, पुष्कारिणी आदि के उल्लेख सामान्य हैं। महापथ, वीथी, अंतरवीथी शृंगाटक, चैराहा आदि शब्द मार्गों की विविध योजनाओं की ओर संकेत देते हैं। महाउम्मग्ग जातक में नगर के चतुर्दिक् अट्ठारस हथ्यो पाकारो हाथ ऊँचा प्राकार तथा नगर के मध्य में राज प्रासाद के स्वरूप का विस्तृत वर्णन है। बौद्ध साहित्य में राजगृह, कौशाम्बी, वाराणसी, मथुरा आदि अनेक नगरों के नाम मिलते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक काल में नगरों के प्राचीरीकरण का प्राचीनतम उदाहरण कौशाम्बी से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उज्जैन, वाराणसी, राजघाट, राजगृह एवं चम्पा जैसे प्राचीन नगरों के उत्खनन से भी इनके रक्षा प्राचीरों से।
मौर्यकाल भारतीय कला एवं वास्तु के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से अति विशिष्ट है क्योंकि इस काल में साहित्यिक स्रोतों के इनके समीकृत अध्ययन से तद्युगीन नगर - वास्तु के एक विकसित स्वरूप का अभिज्ञान होता है। इनमें कौटिल्य का अर्थशास्त्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह भारतीय साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ है, जिसमें वास्तुशास्त्र के सैद्धान्तिक पक्ष को विस्तार मिला। अर्थशास्त्र में वास्तुशास्त्र विषयक जो दिशा-निर्देश दिये गये वे कालान्तर में भी सदैव प्रासंगिक बने रहे। मानसार एवं समरांगणसूत्राधार जैसे ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में वास्तु को परिभाषित करते हुए कहा गया है-गृहं क्षेत्रामारामः सेतुबन्धस्तटाकमाधारो वा वास्तुः अर्थात् घर, खेत वास्तु के उपर्युक्त परिभाषा से इस विषय के विस्तृत परिधि का ज्ञान होता है। उपर्युक्त समस्त प्रकार के वास्तु के निर्माण सम्बन्धी दिशा-निर्देश आचार्य देते हैं।
परन्तु वास्तुशास्त्र के स्रोत के रूप में अर्थशास्त्र का उपयोग करते समय कतिपय कठिनाइयाँ भी आती हैं। प्रथमतः यह ग्रन्थ सूत्र रूप में लिखा गया है, अत: दिये गये विवरण अत्यन्त संक्षिप्त हैं। इसमें प्रदत्त वास्तु विषयक सामग्रियाँ बिखरी हुई हैं और परस्पर असम्बद्ध हैं। साथ ही बहुत से शब्द ऐसे हैं जिनसे हम आज अपरिचित हैं, अतः उनके अर्थ को पूर्णतः समझ पाना कठिन हो जाता है। इस ग्रंथ की कोई प्राचीन टीका भी उपलब्ध नहीं है, जिससे हमारा मार्गदर्शन हो सके। बावजूद इसके अर्थशास्त्र में नागरिक वास्तु विषयक सामग्रियों को समीकृत करने पर तद्युगीन नगर वास्तु की एक संभावित स्वरूप की कल्पना अवश्य की जा सकती है।
अर्थशास्त्र के जनपदनिवेश दूसरा अधिकरण, प्रकरण 17 अध्याय में विविध प्रकार के बस्तियों का परिज्ञान होता है। ये हैं ग्राम, स्थानीय, द्रोणमुख, कार्वटिक एवं संग्रहण। ग्राम-निवेश सम्बन्धी विविध सैद्धान्तिक बातों को यहाँ आचार्य ने विस्तार दिया है। राज्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थिति राजधानी की होती थी। यह नगर राजा का वास स्थान था, फलतः इसकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना स्वाभाविक था। राजधानी की स्थिति ऐसी होनी चाहिए जो प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित हो। इस प्रसंग में आचार्य ने चार प्रकार के प्राकृतिक दुर्गों की चर्चा की है। परन्तु राजधानी के इतर भी राज्य में अनेक नगर होते थे। साथ ही सभी नगरों को प्राकृतिक दुर्गों के द्वारा सुरक्षित कर पाना संभव न था, फलतः अर्थशास्त्र के दुर्गविधानम् प्रकरण द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 19 अध्याय 3 में नगरों के सुरक्षा सम्बन्धी निर्देश अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। नगरों की आन्तरिक योजना दुर्गनिवेश् द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 20, अध्याय 4 का प्रतिपाद्य विषय है। निशान्तप्रणिधि प्रथम अधिकरण, प्रकरण 15, अध्याय 19 में राजप्रासाद तो सन्निधातृनिचयकर्म प्रकरण द्वितीय अधिकरण निर्देश दिए गए हैं।
चूँकि जनपदनिवेश में नगरेतर वास्तु योजना पर प्रकाश पड़ता है अतः इस अध्ययन में इसे विस्तार नहीं दिया गया है। दुर्ग विधानम् में नगरों की सुरक्षा सम्बन्धी उपाय वर्णित हैं। यहाँ कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर उन्होंने 4 विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक दुर्गों का उल्लेख किया है-
(1) औदिक दुर्ग - चारों ओर पानी से घिरा हुआ टापू के समान गहरे तालाबों से आवृत स्थल प्रदेश, औदक दुर्ग कहलाता है।
(2) पार्वत दुर्ग - बड़ी-बड़ी चट्टानों तथा पर्वत की कंदराओं के रूप में निर्मित दुर्ग, पार्वत दुर्ग कहलाता है।
( 3 ) धान्वन दुर्ग - जल तथा घास-फूस आदि से रहित अथवा सर्वथा ऊसर भूमि में निर्मित दुर्ग, धान्वन दुर्ग कहलाता है।
(4) वन दुर्ग - चारों ओर दलदल से घिरा हुआ अथवा काँटेदार सघन झाड़ियों से परिवृत्त दुर्ग, वन दुर्ग कहलाता है।
उपर्युक्त चारों प्रकार के प्राकृतिक दुर्गों के अतिरिक्त आचार्य ने धनोत्पादन के मुख्य केन्द्र बड़े-बड़े स्थानीय कोटि के नगरों के निर्माण का विधान किया है जो निम्नवत् है-
वास्तु विद्या के विद्वानों की सहायता से किसी नदी के संगम पर, बड़े तालाब के किनारे या कमल युक्त जलाशयों के तट।
नगर की योजना सुविधानुसार, गोल, लम्बी अथवा चौकोर बनायी जा सकती है। परन्तु आवश्यक यह है कि नदी के चारों ओर छोटी-छोटी नहरों द्वारा पानी का प्रबन्ध अवश्य किया जाय। उसके इधर-उधर की भूमि में पैदा होने वाली बिक्री योग्य वस्तुओं का संग्रह तथा उनके विक्रय का प्रबन्ध भी वहाँ होना चाहिए।
नगर में आने-जाने के लिए जल मार्ग अथवा स्थल मार्ग दोनों की सुविधा होनी चाहिए।
नगरें को बसाते समय आचार्य ने जिन बातों पर सर्वाधिक ध्यान दिया वे थीं जल की उचित आपूर्ति एवं मार्गों का समुचित प्रबन्ध ये दो तथ्य पूर्व से ही नागरिक बस्ती की अनिवार्य शर्तें रहीं। आचार्य ने भी उनके महत्व को प्रतिपादित किया।
कौटिल्य ने इन नगरों की सुरक्षा के विषय में जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उन्हें संक्षेप में यहाँ उल्लिखित किया जा रहा है-
नगर के चारों ओर एक-एक दण्ड 4 हाथ की दूरी पर क्रमशः चौदह, बारह और दस दण्ड चौड़ी तीन परिखाओं खाइयाँ खुदवानी चाहिए।
खाई जितनी चौड़ी होगी उससे चौथाई अथवा आधी गहरी होनी चाहिए।
इन खाइयों की तलहटी बराबर चौरस एवं मजबूत प्रस्तरों से बंधी हो। उनकी दीवारें पत्थर अथवा ईंटों से मजबूत बनी हुई हों।
उनमें जल निकालने का मार्ग अवश्य होना चाहिए।
खाइयों में कमल के फूल तथा मगरमच्छ आदि रहने चाहिए।
खाई से चार दण्ड की दूरी पर छः दण्ड ऊँचा, सब ओर से मजबूत और ऊपर की चौड़ाई से दुगुनी नींव वाला एक बड़ा वप्र तं यहाँ वप्र के तीन प्रकार उल्लिखित हैं-
(1) उम्रवचय ऊपर पतला
(2) मंचपृष्ठ नीचे चपटा
(3) कुम्भकुक्षिक बीच में कुम्भाकार।
आचार्य ने नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तयुगीन नगर बसाए गए। इसकी पुष्टि यूनानी लेखकों के विवरणों से होती है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर का जो वर्णन किया है, वो इसके अनुरूप है। तद्नुसार यह नगर डेढ़ मील चौड़ा था और 6 मील फैला हुआ था। उसकी परिखा या खाई 600 फुट चौड़ी और 45 फुट गहरी थी। उसके परकोटे में 64 द्वार और 570 अट्टालक थे। नगर के मध्य में राजप्रसाद था। मेगस्थनीज के अनुसार पालिब्रोथा पाटलिपुत्र का प्राकार लकड़ी का बना हुआ था।
पटना की खुदाई में मिले नगर प्राकार के अवशेष से उपर्युक्त साहित्यिक सन्दर्भ का समर्थन होता है। डी०बी० स्पूनर को कुम्हरार के समीप उत्तर की ओर बुलन्दीबाग की खुदाई में साल की लकड़ी की बनी मजबूत प्राचीर का अवशेष सर्वप्रथम 1903 में छपी रिपोर्ट में डब्ल्यू वाड्डेल ने इसका उल्लेख किया, परन्तु 1912-13 में स्पूनर द्वारा तथा 1922-23 से लेकर 1928-29 तक मनोरंजन घोष द्वारा पटना में किए गए उत्खनन के दौरान इस स्थापत्य के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त हुई।
स्पूनर द्वारा की गई खुदाई में लकड़ी के खम्भों की दो समानान्तर दीवारों का ढाँचा मिला था जो 12.5 फुट चौड़ा था। उसके नीचे 22 फुट गहराई में लम्बी चौकोर लकड़ी का बना फर्श मिला उनके कोने दीवार के खम्भों की चुल्लियों में जड़े हुए थे। खम्भे और भी 5 फुट नीचे उतरते चले गए थे जहाँ फर्श के नीचे वे कंकर की नींव में धँसे थे। लकड़ी के इस प्राकार की सफाई 24 फुट तक ही की गई परन्तु जगह-जगह निरीक्षण के लिए खोदे गये गड्ढों के अनुसार यह फर्श कम से कम 350 फुट तक लम्बाई में मौजूद था। निश्चय ही दीवार भी इतनी दूरी तक अवश्य थी, जो बाद में नष्ट हो गई।
श्री मनोरंजन घोष द्वारा समय-समय पर की गई खुदाई से दीवार की परम्परा और अधिक लम्बाई तक देखी गई। परन्तु उनके द्वारा किए गए उत्खनन की सबसे महत्वपूर्ण खोज एक लम्बी सुरंग के अवशेष से सम्बन्धित है जिसकी दीवार प्रायः काष्ठ प्राकार के साथ-साथ पाई गई है।
उल्लेखनीय है कि प्राकार के साथ सुरंग बनवाने का निर्देश कौटिल्य भी देते हैं। प्राचीन पाटलिपुत्र नगर का प्राकार काष्ठ का बना है जबकि कौटिल्य ने नगरों को सुरक्षा प्राचीर को सदैव प्रस्तर से बनवाए जाने इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पाटलिपुत्र का प्राकार अर्थशास्त्र के रचनाकाल के पूर्व की कृति है। अग्निकाण्ड से काष्ठ प्राचीरों के नष्ट होने की जो बात उन्होंने कही वह निश्चय ही वास्तविक अनुभवों पर आधारित प्रतीत होती है।
अर्थशास्त्र में नगर बसति योजना एवं दुर्ग सन्निवेश सम्बन्धी विस्तृत सामग्री उपलब्ध है। इसके दुर्ग निवेश प्रकरण में नगर बसति योजना के विषय में विस्तार से निर्देश प्राप्त होते हैं।
तद्नुसार वास्तु शास्त्रकारों के निर्देशानुसार जिस भूमि को नगर निर्माण के लिए चुना जाय उसमें पूरब से पश्चिम की ओर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले तीन-तीन राजमार्ग हों। इन छह राजमार्गों में नगर-निर्माण या गृह-निर्माण की भूमि का विभाग होना चाहिए। चारों दिशाओं में कुल मिलाकर 12 द्वार हों।
नगर में चार दण्ड 24 फीट चौड़ी रथ्याएँ हो, राजमार्ग, द्रोणमुख चार सौ ग्रामों का मुख्य केन्द्र, स्थानीय 800 ग्रामें का व हाथियों के आने-जाने का मार्ग और खेतों को जाने वाला मार्ग दो दण्ड चौड़ा होना चाहिए। रथों के लिए और पशुओं के चलने का रास्ता दो दण्ड चौड़ा होना चाहिए। मनुष्य तथा भेड़-बकरी इत्यादि छोटे पशुओं के लिए एक दण्ड चौड़ा रास्ता होना चाहिए।
नगर के सुदृढ़ भाग में राजभवन का निर्माण कराना चाहिए। गृह भूमि के बीच से उत्तर की ओर नवें हिस्से में अन्तःपुर रजाभवन का दुर्ग होना चाहिए जिसका द्वार पूरब या उत्तर की ओर हो।
इसके पूर्वोत्तर भाग में आचार्य, पुरोहित के भवन, यज्ञशाला, जलाशय और मन्त्रियों के भवन, रसोईघर, हस्तिशाला और उसके आगे पूरक दिशा में इत्र, तेल, पुष्पहार, अन्न, घी तथा निवास स्थान होने चाहिए।
दक्षिण-पूर्व दिशा में भण्डागार, राजकीय पदार्थों के आय-व्यय का स्थान और सोने-चाँदी की दुकानें होनी चाहिए।
इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम दिशा में शस्त्रागार और अन्य वस्तुओं को रखने का स्थान होना चाहिए।
उनके आगे दक्षिण दिशा में नगराध्यक्ष, व्यापाराध्यक्ष, खदानों तथा कारखानों के निरीक्षक, सेनाध्यक्ष, शराब एवं मांस की पश्चिम-दक्षिण भाग में ऊँटों तथा गधों के स्थान, तबेले तथा व्यापार के लिए अस्थाई घर का निर्माण कराया जाय।
पश्चिम-उत्तर भाग में रथ और पालकी आदि सवारियों को रखने का स्थान होना चाहिए।
इसके आगे पश्चिम दिशा में ही ऊन, सूत, बाँस और चमड़े का कार्य करने वाले, हथियार और उनके म्यान बनाने वाले और उत्तर -पश्चिम में राजकीय पदार्थों को बेचने - खरीदने का बाजार और औषधालय होना चाहिए।
उत्तर -पूरब में कोषगृह और गाय, बैल तथा घोड़ों को रहने का स्थान बनवाना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर नगर देवता, कुल देवता, लुहार, मनिहार और ब्राह्मणों के स्थान बनवाने चाहिए।
नगर की ओर-छोर जहाँ खाली जगह छूटी है, धोबी, दर्जी, जुलाहे और विदेशी व्यापारियों को बसाया जाए।
दुर्गा, विष्णु, जयन्त, इन्द्र, शिव, वरुण, अश्विनी कुमार, लक्ष्मी आदि देवताओं की स्थापना नगर के बीच में करनी चाहिए। कोष्ठागार आदि में भी कुल देवता या नगर देवता की स्थापना करनी चाहिए। प्रत्येक दिशा में मुख्य द्वार पर उसके अधिष्ठाता देवता की स्थापना की जाय। उत्तर का देवता ब्रह्मा, पूर्व का इन्द्र, दक्षिण का यम और पश्चिम का कुमार होता है।
नगर की परिखा के बाहर कुछ दूरी पर चैत्य, पुण्यस्थान, उपवन और सेतुबन्ध आदि स्थानों की रचना यथास्थान और नगर के उत्तर में श्मशान होना चाहिए। दक्षिण दिशा में निम्न जाति के लोगों का श्मशान हो। पाखण्डों और चाण्डालों का निवास स्थान श्मशानों के ही समीप बनवाया जाए।
नगर में बसने वाले परिवारों को उनके अध्यवसाय और उनके योग्य भूमि को देखकर ही बसाया जाय।
उपर्युक्त सन्दर्भों में आचार्य का यह कथन कि नगर में बसने वाले परिवारों को उनके योग्य भूमि को देख कर ही बसाना चाहिए, साथ ही उन्होंने दुर्ग क्षेत्र के बाहर विविध प्रकार के वास्तु- संरचनाओं तथा श्मशान भूमि की अवस्थिति की बात भी कही है, ये तथ्य हमें पुनः सैन्धव बस्तियों की भाँति दुर्ग एवं निचला नगर।
दुर्गीकृत नगर के अन्दर वर्णगत एवं पेशेवर जातियों की बस्तियों के सन्दर्भ में दिए गए आचार्य के निर्देश परम्पराओं पर आधारित वास्तुशास्त्र पर रचित 11वीं शती ई० के प्रसिद्ध ग्रंथ समरांगणसूत्राधर में नगर की आबादी के पेशेवर एवं वर्णानुसार बस्तियों की योजना का जैसा वर्णन है वह अधिकांशतः अर्थशास्त्र के विवरणों से साम्य रखता है। वहाँ भी नगरों के उत्तर में ब्राह्मणों को, पूरब में क्षत्रियों को, दक्षिण में वैश्यों तथा पश्चिम में शूद्रों को बसाए जाने का निर्देश है।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय नगरों में वर्णगत् बसति योजना की यह दीर्घकालीन परम्परा थी।
बहुत संभव है कि आचार्य ने उसी परम्परा का निर्वहन किया है। परन्तु इसके साथ ही नगर सन्निवेश सम्बन्धी आचार्य के निर्देश व्यावहारिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण लगते हैं। जैसे नगर के उत्तर -पूर्व में यज्ञशाला के साथ पुरोहितों की बस्ती तथा उनके समीप ही ब्राह्मण को बसाने के निर्देश तार्किक लगता है।
वैसे ही राजभवन के प्रदेश द्वार के पूर्व दिशा में होने से तथा उसी दिशा में क्षत्रियों को बसाने की बात भी व्यावहारिक लगती है, नगर के दक्षिण में शराब की दुकानों तथा गजिकालय के साथ पुलिस के अधिकारियों एवं नगराध्यक्ष को बसाना तथा उन पर नियंत्रण करना आवश्यक था अतः उपर्युक्त कतिपय उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य का नगर सन्निवेश सम्बन्धी सुझाव परम्परा पर साथ ही प्रकार्यात्मक उपयोगिता की दृष्टि से भी प्रासंगिक था।
जैसा कि ऊपर वर्णित है कि आचार्य ने नगर सन्निवेश का प्रारूप राज- प्रासाद को केन्द्र में रख कर निर्धारित किया। निशान्त प्रविधि नामक प्रकरण में उन्होंने राज-प्रासाद वास्तुगत स्वरूप के सम्बन्ध में दिशा-निर्देश दिया है। चूँकि आचार्य की मुख्य चिन्ता राजा की सुरक्षा को लेकर थी अतः वे राजप्रासाद तथा उसमें भी राजा के महल की रक्षा के उपायों उनके अनुसार अन्तः पुर यहाँ अभिप्राय राज प्रासाद से है जिसका अपना स्वतंत्र प्रकार हो। इसके मध्य राजा का महल बनवाना चाहिए जिसकी दीवारों तथा गलियों का पता न लगे। इसके बीच में राजा के रहने का निवास बनाया जाए जिसमें आने-जाने के लिए गुप्त सुरंगें हों या फिर ऐसा महल बनवाया जाए जिसकी दीवारों के भीतर गुप्त मार्ग हो अथवा पोले खम्भों के भी उतरने का रास्ता हो अथवा आपत्तिकाल के निवारण के लिए यंत्रों के आधार पर ऐसा वासगृह बनवाये जिसको इच्छानुसार नीचे-ऊपर तथा इधर-उधर हटाया जा सके, अथवा आपत्तिकाल के उपस्थित हो जाने पर ऐसे भवन का निर्माण करवायें। यदि राजा को इस बात की आशंका हो कि उसके समान ही दूसरे शत्रु राजा भी वास्तुकलाविद् है और वह गुप्त भवन-निर्माण सम्बन्धी सभी रहस्यों को जानता है तो वह अपनी बुद्धि के अनुसार उसमें परिवर्तन कर दे।
यहाँ अग्नि शमन का उचित प्रबन्ध हो।
राजा के निवास स्थान के पीछे रनिवास, उसके समीप की प्रसूता, बीमार तथा असाध्य रोगिणी स्त्रियों के लिए अलग-अलग तीन आवास बनवाये जाएँ और उन्हीं के साथ छोटे-छोटे उद्यान एवं सरोवरों का निर्माण किया जाए। बाहर की ओर राजकुमारियों और युवक राजकुमारों के लिए स्थान बनवाये जाएँ।
राजमहल के आगे हरी-हरी घास और फूलों से सजे हुए उपवन होने चाहिए। उसके बाद मन्त्रीसभा का स्थान, फिर दरबार और तदन्तर राजकुमार, समाहर्ता - सन्निधाता आदि अध्यक्षों के प्रधान कार्यालय होने चाहिए।
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- प्रश्न- प्रादेशिक भूगोल में प्रदेश (Region) की संकल्पना का विस्तृत वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्रदेशों के प्रकार का विस्तृत वर्णन कीजिये।
- प्रश्न- प्राकृतिक प्रदेश को परिभाषित कीजिए।
- प्रश्न- प्रदेश को परिभाषित कीजिए एवं उसके दो प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- प्राकृतिक प्रदेश से क्या आशय है?
- प्रश्न- सामान्य एवं विशिष्ट प्रदेश से क्या आशय है?
- प्रश्न- क्षेत्रीयकरण को समझाते हुए इसके मुख्य आधारों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- क्षेत्रीयकरण के जलवायु सम्बन्धी आधार कौन से हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- क्षेत्रीयकरण के कृषि जलवायु आधार कौन से हैं? इन आधारों पर क्षेत्रीयकरण की किसी एक योजना का भारत के संदर्भ में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारत के क्षेत्रीयकरण से सम्बन्धित मेकफारलेन एवं डडले स्टाम्प के दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- क्षेत्रीयकरण के भू-राजनीति आधार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- डॉ० काजी सैयदउद्दीन अहमद का क्षेत्रीयकरण दृष्टिकोण क्या था?
- प्रश्न- प्रो० स्पेट के क्षेत्रीयकरण दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भारत के क्षेत्रीयकरण से सम्बन्धित पूर्व दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- प्रादेशिक नियोजन से आप क्या समझते हैं? इसके उद्देश्य भी बताइए।
- प्रश्न- प्रादेशिक नियोजन की आवश्यकता क्यों है? तर्क सहित समझाइए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में नियोजन पद्धतियों पर लेख लिखिए।
- प्रश्न- नियोजन तथा आर्थिक नियोजन से आपका क्या आशय है?
- प्रश्न- प्रादेशिक नियोजन में भूगोल की भूमिका पर एक निबन्ध लिखो।
- प्रश्न- हिमालय पर्वतीय प्रदेश को कितने मेसो प्रदेशों में बांटा जा सकता है? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय प्रायद्वीपीय उच्च भूमि प्रदेश का मेसो विभाजन प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय तट व द्वीपसमूह को किस प्रकार मेसो प्रदेशों में विभक्त किया जा सकता है? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "हिमालय की नदियाँ और हिमनद" पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- दक्षिणी भारत की नदियों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- पूर्वी हिमालय प्रदेश का संसाधन प्रदेश के रूप में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारत में गंगा के मध्यवर्ती मैदान भौगोलिक प्रदेश पर विस्तृत टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- भारत के उत्तरी विशाल मैदानों की उत्पत्ति, महत्व एवं स्थलाकृति पर विस्तृत लेख लिखिए।
- प्रश्न- मध्य गंगा के मैदान के भौगोलिक प्रदेश पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- छोटा नागपुर का पठार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- प्रादेशिक दृष्टिकोण के संदर्भ में थार के मरुस्थल की उत्पत्ति, महत्व एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- क्षेत्रीय दृष्टिकोण के महत्व से लद्दाख पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- राजस्थान के मैदान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- विकास की अवधारणा को समझाइये |
- प्रश्न- विकास के प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- सतत् विकास का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- सतत् विकास के स्वरूप को समझाइये |
- प्रश्न- सतत् विकास के क्षेत्र कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- सतत् विकास के महत्वपूर्ण सिद्धान्त एवं विशेषताओं पर विस्तृत लेख लिखिए।
- प्रश्न- अल्प विकास की प्रकृति के विभिन्न दृष्टिकोण समझाइए।
- प्रश्न- अल्प विकास और अल्पविकसित से आपका क्या आशय है? गुण्डरफ्रैंक ने अल्पविकास के क्या कारण बनाए है?
- प्रश्न- विकास के विभिन्न दृष्टिकोणों पर संक्षेप में टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- सतत् विकास से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- सतत् विकास के लक्ष्य कौन-कौन से हैं?
- प्रश्न- आधुनिकीकरण सिद्धान्त की आलोचना पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- अविकसितता का विकास से क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- विकास के आधुनिकीकरण के विभिन्न दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- डॉ० गुन्नार मिर्डल के अल्प विकास मॉडल पर विस्तृत लेख लिखिए।
- प्रश्न- अल्प विकास मॉडल विकास ध्रुव सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए तथा प्रादेशिक नियोजन में इसकी सार्थकता को समझाइये।
- प्रश्न- गुन्नार मिर्डल के प्रतिक्षिप्त प्रभाव सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विकास विरोधी परिप्रेक्ष्य क्या है?
- प्रश्न- पेरौक्स के ध्रुव सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- गुन्नार मिर्डल के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- क्षेत्रीय विषमता की अवधारणा को समझाइये
- प्रश्न- विकास के संकेतकों पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भारत में क्षेत्रीय असंतुलन की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- क्षेत्रीय विषमता निवारण के उपाय क्या हो सकते हैं?
- प्रश्न- क्षेत्रीय विषमताओं के कारण बताइये। .
- प्रश्न- संतुलित क्षेत्रीय विकास के लिए कुछ सुझाव दीजिये।
- प्रश्न- क्षेत्रीय असंतुलन का मापन किस प्रकार किया जा सकता है?
- प्रश्न- क्षेत्रीय असमानता के सामाजिक संकेतक कौन से हैं?
- प्रश्न- क्षेत्रीय असंतुलन के क्या परिणाम हो सकते हैं?
- प्रश्न- आर्थिक अभिवृद्धि कार्यक्रमों में सतत विकास कैसे शामिल किया जा सकता है?
- प्रश्न- सतत जीविका से आप क्या समझते हैं? एक राष्ट्र इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकता है? विस्तारपूर्वक समझाइये |
- प्रश्न- एक देश की प्रकृति के साथ सामंजस्य से जीने की चाह के मार्ग में कौन-सी समस्याएँ आती हैं?
- प्रश्न- सतत विकास के सामाजिक घटकों पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- सतत विकास के आर्थिक घटकों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- सतत् विकास के लिए यथास्थिति दृष्टिकोण के बारे में समझाइये |
- प्रश्न- सतत विकास के लिए एकीकृत दृष्टिकोण के बारे में लिखिए।
- प्रश्न- विकास और पर्यावरण के बीच क्या संबंध है?
- प्रश्न- सतत विकास के लिए सामुदायिक क्षमता निर्माण दृष्टिकोण के आयामों को समझाइये |
- प्रश्न- सतत आजीविका के लिए मानव विकास दृष्टिकोण पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
- प्रश्न- सतत विकास के लिए हरित लेखा दृष्टिकोण का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- विकास का अर्थ स्पष्ट रूप से समझाइये |
- प्रश्न- स्थानीय नियोजन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- भारत में नियोजन के विभिन्न स्तर कौन से है? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- नियोजन के आधार एवं आयाम कौन से हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारत में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में क्षेत्रीय उद्देश्यों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- आर्थिक विकास में नियोजन क्यों आवश्यक है?
- प्रश्न- भारत में नियोजन अनुभव पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भारत में क्षेत्रीय नियोजन की विफलताओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- नियोजन की चुनौतियां और आवश्यकताओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- बहुस्तरीय नियोजन क्या है? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- पंचायती राज व्यवस्था के ग्रामीण जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- ग्रामीण पुनर्निर्माण में ग्राम पंचायतों के योगदान की विवेचना कीजिये।
- प्रश्न- संविधान के 72वें संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं में जो परिवर्तन किये गये हैं उनका उल्लेख कीजिये।
- प्रश्न- पंचायती राज की समस्याओं का विवेचन कीजिये। पंचायती राज संस्थाओं को सफल बनाने हेतु सुझाव भी दीजिये।
- प्रश्न- न्यूनतम आवश्यक उपागम की व्याख्या कीजिये।
- प्रश्न- साझा न्यूनतम कार्यक्रम की विस्तारपूर्वक रूपरेखा प्रस्तुत कीजिये।
- प्रश्न- भारत में अनुसूचित जनजातियों के विकास हेतु क्या उपाय किये गये हैं?
- प्रश्न- भारत में तीव्र नगरीयकरण के प्रतिरूप और समस्याओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- पंचायती राज व्यवस्था की समस्याओं की विवेचना कीजिये।
- प्रश्न- प्राचीन व आधुनिक पंचायतों में क्या समानता और अन्तर है?
- प्रश्न- पंचायती राज संस्थाओं को सफल बनाने हेतु सुझाव दीजिये।
- प्रश्न- भारत में प्रादेशिक नियोजन के लिए न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के महत्व का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के सम्मिलित कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारत के नगरीय क्षेत्रों के प्रादेशिक नियोजन से आप क्या समझते हैं?